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कुर्सी और प्रजातंत्र

bebaak
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बदलती आज दुनियां है
बदलता देश मेरा है
बदल दल के ज़माने में
यह कुर्सी पर भी पहरा है .
चुराते चोर धन दौलत
यहाँ कुर्सी की चोरी है
दिया परमिट ,लिया टन-टन
नहीं यह घूसखोरी है .
चुनावों का ये मौसम भी
महकती गंध लता है ,
कहीं पूड़ी कहीं हलवा
कहीं चमचम बुलाता है .
होगा रोज हरिकीर्तन
जपेंगें नाम मतदाता
मिलेगी उनको भी तोसक
सिलेगा उनका भी छाता.
चलेगी रात दिन मोटर
बजे रिकार्ड नामों का
न पूछेगा कोई उनसे
कहाँ रेकार्ड कामों का .
फतह होगी यहाँ उनकी
जो पैसे को लुतातें हैं
बिकेंगे रोज मतदाता
जो अब ठठरी बजाते है .
अगर हो रोज यह दंगल
हमेशा होती हरियाली
न होती कमी ही कुछ की
न होता पेट यह खाली.
कहीं वे दल बदलते थे
यहाँ खुद दल बदलता है
कभी इसमें कभी उसमें
जिगर दिल सब बदलता है .
—कृष्ण जी श्रीवास्तव

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