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अधरों की आकुलता

bebaak
bebaak
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पलक का
गिर के उठ जाना
बटा
अधरों की आकुलता
घटाना
उँगलियों के पोर पर
दिन -रात
गिन -गिन कर ,
फड़कती आँख से जोड़े
किसी के
आज आने को ,
गुणा करती
हर आहट
मन की चंचलता ,
बचेगा शेष क्या
जब
भाग में हो
शुन्य सन्नाटा ,
फिर वही
प्रतीक्षा अन्नत/*

*/

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