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ठूंठ की आत्म कथा

bebaak
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मैं भी कभी झूमा था
सावन की
मदमाती बहारों में ,
रिम झिम बरसात में,
सनसनाती हवाओं के साथ –
ताल पर ताल मिला कर
मैं भी नाचा था /
फूलों भरी क्यारी में
मंडराते , इठलाते
भंवरों की करतूतों का
मैं गवाह हूँ ,
हवा के हिंडोले पर
झूमते ,मंडराते
गीत गाते
उनकी प्रत्येक हरकत
मैंने
अपनी आँखों देखी है /
सरसों की क्यारी में
भागती
उस परछांई को
मैं बहुत दिनों से
जानता हूँ /
जब मैं जवान था
वह प्रतिदिन
थकी- हारी
मेरे पास बैठ कर
अपना पसीना सुखाती
फिर लाल चमकती
चुनरी उड़ाती
भाग जाती /
आज मुझे ख़ुशी है
उस विदेशी जोड़े को
मुझ ठूंठ में भी
कुछ नज़र आया ,
मैं तन कर
खड़ा हो गया
और फोटो खिंचाया /
उस ग्रामीण बाला को
छांह न देने का
मुझे दुःख है
परन्तु क्या करूँ
मैं तो एक ठूंठ हूँ /
फिर सोचता हूँ
पेड़ से ठूंठ बनने की
गत्यात्मक यात्रा ही
जीवन का सत्य है/*

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