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गाँव की दशा -दिशा और चुनाव

bebaak
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अभी कुछ दिनों पहले गांवों , कस्बों में साप्ताहिक हाट लगती थी . दूर -दूर के व्यापारी अपना सामान लेकर आते थे , उत्सव जैसा माहौल रहता था . किसानो को अपनी कृषि उपज बेचने का एक मौका मिलता था . सीधे उपभोक्ता को सामान की बिक्री होती थी . जगह जगह छोटी -छोटी दुकाने खुलने से यह परंपरा समाप्त हो गई . अभी भी यदि आप शाम के समय सड़क मार्ग से जा रहे हों तो जहाँ कस्बे होगे वहां सड़क के किनारे कृषि उत्पादों की दुकाने पटरियों पर लगी मिल जाएगी . इसमे भी किसान के उत्पाद सीधे उपभोक्ता तक पहुंचते हैं . छोटे -छोटे शहरों में ” sattiyan “लगा करती थीं .गावों से किसान अपना उत्पाद लेकर शहर आते थे . अब यह परंपरा भी धीरे धीरे समाप्त प्राय है .
बड़ी मात्रा में कृषि उत्पादन करने वाले किसान अपना मॉल लेकर मंडियों में आते हैं . अब मंडियों में व्यापारियों का समूह ग्रुप बना कर दाम लगाता है , यह किसान की मजबूरी है कि वह अपना सामान उनकी कीमत पर बेचे ,क्योकि सामान तो ख़राब होने वाला है यहाँ भी उसका शोषण होता है .हर स्थिति एवं परिस्थिति में किसान का शोषण होना उसकी नियति बन गई है . क्या यह संभव नहीं है कि जिस कस्बे में सड़क के किनारे दुकाने लग रही है , छोटे शहरों में जहाँ आसपास के किसान अपना उत्पाद लेकर आते हैं ,वहीँ कही आसपास इस छोटी हाट के लिए जमीन आवंटित कर दी जाय जिससे किसान अपने उत्पाद को सीधे उपभोक्ता को बेंच सके , क्योकि मंडी समिति का क्या हाल है यह जनता को तो मालूम है परन्तु लगता है कि सरकारों को मालूम नहीं है या जानबूझ कर भी वह अनजान है या यह सब उसकी शह पर हो रहा है .
पहले के समय में लोग पारंपरिक खेती करते थे . इसमे गेहूं , धान ,तिलहन ,दलहन, गन्ना आदि की फसले अपनी आवश्यकतानुसार उगाते थे . समय बदला ,जनसँख्या बढ़ी , खेत छोटे छोटे होते चले गए , अब विभिन्न फसले न उगा कर नकदी फसलो का चलन बढ़ रहा है .इसका परिणाम यह हो रहा है कि पंजाब में आलू की फसल इतनी हो गई कि किसान को उत्पादन लागत मूल्य भी नहीं मिल पा रहा है . उ .प्र. के दक्षिणांचल में टमाटर की फसल इतनी ज्यादा हो गई कि खेत से मंडी तक ले जाने का भाडा भी नहीं निकल पा रहा था .परिणाम , किसान बदहाल है . जब तक भण्डारण की सुविधा किसानों को उपलब्ध नहीं होगी तब तक उनकी यह स्थिति बरकरार रहेगी . परन्तु दुर्भाग्य देखिये कोई भी राजनैतिक पार्टी ब्लाक स्तर पर भण्डारण की सुविधा उपलब्ध कराने की बात नहीं कर रही है , कोई कर भी रहा है तो वह दोष दूसरों पर लगा रहा है .
सोनभद्र एवं बिहार के कुछ भागों की मिटटी ऐसी है कि वहां टमाटर की पैदावार बहुतायत में तथा अच्छी होती है . क्या सरकार के विभागों को यह जानकारी नहीं है ? यदि है तो सरकारों ने किसानों को उचित मूल्य दिलाने की दिशा में क्यों नहीं प्रयास किया ? क्या किसानों को वालमार्ट के भरोसे ही छोड़ने का विकल्प शेष है ? इसका विकल्प यही हो सकता है कि इन विशेष स्थानों पर छोटे छोटे कारखाने स्थापित किये जाय , जिससे कच्चे माल को परिष्कृत कर मनचाहा उत्पाद तैयार किया जा सके . इससे कच्चा माल भी ख़राब नहीं होगा और किसानों को सही कीमत भी मिल सकेगी . इसका आदर्श उदहारण सतना की दाल मिलें हैं , गन्ना उत्पादक क्षेत्रों की चीनी मिलें हैं . इसी तरह सब्जी उत्पादक क्षेत्रों में प्रोसेसिंग unit लगाईं जा सकती है .इसमे मेरा स्पष्ट मानना है कि सरकार एवं सरकारी मशीनरी कि दखलंदाजी कम से कम होनी चाहिए तभी ये छोटे उपक्रम सफल हो सकते हैं ,अन्यथा सरकारी चीनी मिलों की तरह बंद होकर कार्पोरेट हॉउस की गोद में चली जाएँगी .राजनैतिक पार्टियों के चुनाव घोषणा पत्रों में किसानों के इस दुःख -दर्द के सम्बन्ध में एक भी शब्द नहीं है . वे तो केवल लैपटाप देने ,क़र्ज़ माफ करने की ही बात कर रहे हैं . किसान कैसे आत्म निर्भर हो यह कोई नहीं सोचता है .
जब दूध में एक छोटी सहकारी संस्था आज भारत की शान है तो यही प्रयोग कच्चे माल में क्यों नहीं किया जा सकता ?जो काम वालमार्ट कर रही है या कर सकती है या करेगी उसे भारतीय प्रबंधक क्यों नहीं कर सकते ? क्या इनमे मेधा की कमी है , फिर इन पर अविश्वास क्यों है ?बाज़ार की स्थितियां स्वयं बाज़ार की दशा और दिशा निर्धारित करती हैं . सरकारें तो वालमार्ट की प्रशंसक हैं . उसके पक्ष में लाविंग भी हो रही है . आप खुद सोचिये जिसकी लाबिंग में इतना खर्च हो रहा है तो यदि उसमे कमीशन हो तो उसकी क्या स्थिति होगी ? स्थिति स्पष्ट है , सरकारें वही नियम कानून बनाएगी जिसमे उसका हित हो , उसके चाहने वालों का हित हो , सरकारों की भी मजबूरी है , वह भी राजनैतिक दलों से चलती है , उसे भी धन की जरुरत होती है , जनता को भी अन्यथा नहीं लेना चाहिए , ये लाबिंग में चुनाव खर्च न लें तो क्या करें , इनके चरित्र को देख कर जनता पैसा देने से तो रही . अब यदि किसान अपना भला चाहते हैं तो उन्हें ग्राम स्तर पर स्वयं के बल पर सहकारी समितियों का निर्माण करना होगा . शर्त यह है कि इसमे किसी बाहरी , राजनैतिक व्यक्ति या दल का परोक्ष या अपरोक्ष दखल नहीं होना चाहिए .
यह सहकारी संस्था ग्राम में उत्पादित कृषि या अन्य सामानों के विपणन हेतु ब्लाक समितियों से जुडी हो तथा ये ब्लाक समितियां जिले कि समितियों से जुडी हों . सरकारे यदि सहयोग करना ही चाहती हैं तो उसे इन समितियों को स्थान उपलब्ध कराना चाहिए भण्डारण व्यवस्था में मदद करनी चाहिए , जमीन का परीक्षण एवं फसल बोने कि जानकारी देनी चाहिए , चुनावों के इस मौसम में कोई भी राजनैतिक पार्टियाँ जब बोल नहीं रही हैं तो भला क्या करेगी .जब किसान एक बार यह चक्र चला लेगा तो पहिया अपने आप घूमने लगेगा . किसानो को भी यह याद रखना होगा कि सरकारे भले ही व्यापार में दखल दें लें परन्तु बाज़ार को वह नियंत्रित नहीं कर सकती . यह भी याद रखने कि जरुरत होगी “संघे शक्ति कलयुगे ” . भले ही कितने भी वालमार्ट खुल जाय ये छोटी छोटी सहकारी समितियां उसे पराजित कर देगी . अमूल के विकास माडल को अन्य वस्तुओं और अन्य जगहों पर लागू करने में न तो सरकारों का हित है और नहीं राजनैतिक पार्टियों का ही हित है , इससे केवल और केवल जनता का हित है . अतः जनता को ही एक जुट होकर पहल करनी पड़ेगी . बस इच्छा शक्ति कि जरुरत है . कोई भी राजनैतिक पार्टी इस मुद्दे पर बहस करती नज़र नहीं आ रही है . वक्त आ गया है , उठिए ,देखिये ,बढिए . जो आपके दुःख दर्द में शामिल होने का माद्दा रखता हो उसे वोट करिए , यही आज समय कि मांग है .

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