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विकास की प्रक्रिया में कार्य कुशल , अनुभवी कर्मकारों की बड़ी महत्ता है . अच्छे सेवायोजक अपने कार्यकुशल अधिकारियों , कर्मचारियों को सुविधाएं देकर अपने यहाँ रोके रखने का प्रयास करते हैं .इससे कामगारों के साथ ही साथ कंपनी की भी उन्नति होती रहती है . इसी से प्रान्त तथा देश की भी प्रगति होती है . एक समय था जब भारत सरकार को अपने यहाँ से बाहरी मुल्कों में जाने वाले तथा गए हुए लोगों से देश में ही रुकने तथा कार्य करने एवं देश की उन्नति में भागीदार बनने की अपील करनी पड़ी थी .उसका असर भी हुआ था .बहुत से लोग देश वापस आये तथा जाने वाले नहीं गए . इस तरह प्रगति का चक्र घूमने लगा .
आंध्र प्रदेश , कर्नाटक , तमिलनाडु में कुछ समय पहले इंजीनियरिंग कालेज खुलने लगे थे . स्नातक तैयार होने लगे . सरकारों ने उद्योग स्थापित करने का अच्छा माहौल तैयार किया . कम्पनियां खुलने लगी . लोगों को रोजगार मिलने लगा प्रगति का चक्र और तेजी से घूमने लगा .सरकारों को राजस्व मिलने लगा . कंपनियों का लाभ देख कर और उद्यमी आकर्षित होने लगे . विकास के चक्र को और गति मिली . आज हालत यह है कि भारत के हर क्षेत्र की कुशल प्रज्ञा इन क्षेत्रों में देखी जा सकती है .इसके विपरीत उ .प्र. के पूर्वांचल एवं बिहार जैसे राज्यों से मेधावी छात्रों , कार्यकुशल श्रमिकों , एवं अधिकारियों का पलायन इन राज्यों को हो रहा है , और यह स्वाभाविक भी है . जहां सेवा का अच्छा मूल्य मिलेगा श्रम उधर ही जाएगा , अर्थशास्त्र का यही सिद्धांत भी है .आज उ . प्र. के पूर्वांचल एवं बिहार के छात्र , कार्यकुशल व्यक्ति यहाँ रोजगार के अनुकूल अवसर एवं उद्योग धंधों के न होने के कारण , जाने को मजबूर हैं .उ.प्र. में कुकरमुत्तों की तरह इंजीनियरिंग कालेज खुले , यह अच्छा हुआ , परन्तु वहां से निकले स्नातकों को रोजगार के लिए बाहरी प्रान्तों का मुंह देखना पड़ रहा है. क्योंकि उनके लायक काम यहाँ नहीं है .
आज आप यदि उ .प्र .के पूर्वांचल एवं बिहार के ग्रामीण इलाकों का भ्रमण करें एवं स्थिति का निष्पक्ष आकलन करें तो दो तथ्य सामने आते हैं . पहला ,गावों में वही लोग रह गए हैं जो सेवानिवृत हो गए हैं या शारीरिक रूप से अक्षम हो गए हैं . दूसरा वर्ग उनका है जो कहीं नौकरी नहीं प्राप्त कर सके हैं या अकुशल श्रमिक के रूप में रह गए हैं , और महिलायें . जो बड़े शहरों या जिला मुख्यालयों पर कार्य कर रहे हैं वे अपने बच्चों को रहन -सहन , शिक्षा के उद्देश्य से वहीँ रख रहे हैं . गाँवों में सेवानिवृत या अशक्त लोगों , अकुशल श्रमिकों से क्या अपेक्षा की जा सकती है . गाँव का मतलब अब यही होकर रह गया है . खेती में अब नए प्रयोग नहीं हो पा रहे हैं .पारंपरिक खेती से कितना अधिक अन्न उत्पादित किया जा सकता है , आप जानते ही हैं . गाँवों की हालत दिन पर दिन बदतर होती जा रही है . यदि पलायन का यही हाल रहा तो आगे स्थिति और भी बदतर होती जायेगी . इस और किसी भी सरकार का ध्यान नहीं है या सरकारे घोटालों में इतनी उलझी हुई हैं किइस और ध्यान ही नहीं दे पा रही हैं. प्रान्तों का विकास हो रहा है , देश का भी विकास हो रहा है , परन्तु यह सर्वांगीण विकास नहीं है . कुछ क्षेत्र तो जगमग हैं लेकिन कुछ क्षेत्र सचमुच सुखंडी मारे लडके की तरह कलप रहें हैं . इसका फल यह हो रहा है कि विकसित क्षेत्र की तरफ मेधा का झुकाव होता जा रहा है . अविकसित क्षेत्र और पिछड़े होते जा रहे हैं .इनका हाल पूछने वाला कोई नहीं है . इनके लिए कोई योजनायें नहीं हैं . जो है भी उनमें बन्दर बाँट चालु है . नहर का पानी टेल तक पहुँच नहीं पा रहा है .
कई राज्यों ने उद्योग धंधों को अपने यहाँ सुविधाएँ दी . उद्योग लगे, लोगों को रोजगार मिला,पलायन रुका , विकास का पहिया चल पडा . इसका उदाहरण उतराखंड है . मनिआर्दरअर्थव्यवस्था से यह आज औद्योगिक क्षेत्र के रूप में जाना जाता है .बड़े उद्योग से प्रभावित छोटे उद्योग लगे . रोजगार का सृजन हुआ . लोगों की क्रय शक्ति बढ़ी . जीवन खुशहाल हुआ .यह माडल पूर्वी उ .प्र. और बिहार में क्यों नहीं लागू किया जा सकता ? यहाँ मेधा की कमी नहीं है , कार्य कुशल लोगों की कमी नहीं है , फिर क्या कारण है कि सरकारें जनता के श्रम का सही उपयोग नहीं कर पा रहीं हैं ? इसका दोषी कौन है ?
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