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पी.यल . ४८० के पुनर्वापसी की आहट

bebaak
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वर्त्तमान समय में भारत में नौजवान पीढ़ी को पी . यल .४८० के बारे में शायद पूरा पता न हो , अधिक से अधिक कहीं सामान्य ज्ञान की पुस्तकों में पढ़ लिया हो . संभव है उन्होंने वैसी राशन की दुकानों पर लम्बी -लम्बी कतारों को कभी देखा ही न हो और नहीं सुना ही हो . भोगने की तो बात ही दूर की है . वे भी क्या दिन थे ?जनसंख्या कम थी फिर भी खाने को लाले थे . वह तो भला हो डा . बोरलाग और हमारे वैज्ञानिकों का जिन्होंने खाद्यान्न उत्पादन में नई क्रान्ति दी, नई दिशा दी . आज हम जरुरत से ज्यादा उत्पादन कर रहे हैं . भंडारण की जगह नहीं है . अनाज सड़ रहा है . न्यायालय को हस्तक्षेप करना पड़ रहा है . कोई जिम्मेदारी लेने को तैयार नहीं है . एक दुसरे को कोसा जा रहा है . समय की मांग को देखते हुए हमें उसी समय तैयार हो जाना चाहिए था . भविष्य देखते हुए कि जमीन तो बढ़ नहीं सकती हमें सतर्कता बरतनी चाहिए थी जैसा कि चीन ने किया . परन्तु हम तो जब समस्या सर पर आ जाती है तब चेतते हैं . सेमीनार होता है . बैठकें होती हैं . नियम बनते हैं .फिर सब टांय-टांय फिस्स. बन्दर बाँट चालू .यही होता आया है . यही हो रहा है . हम ऐसे ही रहे तो आगे भी ऐसा ही होगा .
आज जनसंख्या बढ़ने से मांग बढ़ रही है . मांग है तो उत्पादन करना ही पडेगा . नए -नए कारखाने लगाने ही पड़ेगें . वे हवा में तो लगेंगे नहीं उन्हें जमीन चाहिए . बच्चे पढ़ने वाले होंगे तो स्कूल -कालेज खुलेगें ही , उन्हें भी जमीन चाहिए . छोटी बड़ी हाट गाँवों -कस्बों में लग रही है , उन्हें भी जमीन चाहिए . सड़कें- नहरे बन रही हैं उन्हें भी जमीन चाहिए . लोगों को घर चाहिए , घर तो जमीन पर ही बनेगें लिहाजा उन्हें भी जमीन चाहिए ,भले ही वे मल्टी स्टोरी क्यों न हो . शहर वृताकार फैल रहे हैं , उन्हें भी जमीन चाहिए .कहने का तात्पर्य यह कि सबको जमीन चाहिए परन्तु दुर्भाग्य यह कि जमीन फैल नहीं रही है बल्कि सिकुड़ रही है . यह सिकुड़ रही जमीन कृषि उत्पादन के लिए दिन पर दिन कम होती जा रही है . यह आगे और भी कम होगी .उस स्थिति का अंदाजा लगाइए , कितना भयावह होगा वह दिन .दुर्भाग्य देखिये इसकी कहीं कोई चर्चा नहीं , कहीं कोई सुगबुगाहट नहीं .चारो तरफ तमाम समस्याओं पर चर्चा हो रही है . जनसंख्या तो कोई समस्या है ही नहीं . पहले बहुत सरकारी प्रचार होता था . गली गली में छोटे छोटे बच्चे भी जानते थे . गुब्बारा बनाते थे .आज वह भी नहीं है जैसे सरकार ने जनसंख्या वृद्धि रोकने में सफलता हासिल कर ली हो और प्रोग्राम ख़त्म !
यदि सही शब्दों में कहा जाय तो भारत बहुत से सम्प्रदायों का मिला जुला रूप है , बुरी तरह जकड़ा हुआ . यहाँ कुछ बड़े तथा बहुत से छोटे -छोटे सम्प्रदाय हैं . सबकी अपनी अपनी मान्यताएं हैं , अपनी अपनी सोच है . समाज इन छोटी छोटी नदियों रूपी सम्प्रदायों को जोड़ते हुए एक बड़ी नदी की तरह आगे बढ़ रहा है , प्रगति कर रहा है , परन्तु यह प्रगति कितने समय की है , यह सोचने की , यह समझने की किसी को फुरसत नहीं है , जैसे यह उनकी समस्या नहीं है , समाज की नहीं है ,देश की नहीं है . शुतुरमुर्ग की तरह मुंह छुपाये हम अपने में ही मगन हैं .जब समस्या आएगी तब देखा जाएगा . कोई न कोई भगवान /खुदा / गाड कोई न कोई रास्ता निकाल ही देगा . समाज के बुद्धिजीवी भी चुप हैं . राजनैतिक पार्टियों के बोलने- सोचने का तो सवाल ही नहीं है . कहीं बोला , वोट बैंक खिसका , कुर्सी गई .मानते सब हैं परन्तु कोई बोलने को तैयार नहीं है . आखिर यह चुप्पी कब टूटेगी ?बाढ़ आती है तो नेता लोग हेलीकाप्टर से जायजा लेते हैं . आदमी जब एक दुसरे पर चींटों की तरह चढ़ने लगेगा तब ये खद्दर धारी उस अलभ्य दृश्य को देखने निकलेगें . क्यों नहीं जनसंख्या के बिंदु पर सेमीनार आयोजित किये जाते , क्यों नहीं जनता की जागरूकता बढाने का प्रयास किया जाता ? सभी सम्प्रदायों को जोड़ते हुए एक राय कायम करने का प्रयास क्यों नहीं किया जा रहा है ? क्यों संसद जनसंख्या वृद्धि पर कानून बनाने को तत्पर नहीं है ?
पंडित जवाहर लाल नेहरू के समय में कांग्रेस के गाजीपुर के एक सांसद ने कहा था कि वहां आदमी गोबर में सेअनाज निकाल कर खा रहे हैं , इतनी गरीबी वहां पर है . इस पर एक कमीशन का भी गठन हुआ था . इस पर क्या हुआ ? सब दिखावा . जब हम छोटे थे तो दादी डरवाती थीं कि थाली में जो खाना छोड़ देते हो , भगवान जी उसे लिख लेते हैं .फिर जब छोड़ा खाना तुम्हारे एक दिन के खाने के बराबर हो जाता है तो किसी न किसी बहाने तुम्हें एक दिन खाने को नहीं मिलता . हम बच्चे तब थाली का बचा खाना जल्दी जल्दी खा लेते थे . आज गोदाम के बाहर रक्खा अनाज सड़ रहा है .कहीं ऐसा न हो कि कल सड़ रहा अनाज ही हमें खाना पड़ जाय और बाढ़ कि तरह बढ़ रही जनसंख्या कहीं पूरी प्रगति ही न लील जाय .
जिस दर से जनसंख्या बढ़ रही है यदि उसी दर से विकास के सभी अंगों में बढ़ोत्तरी को मान भी लिया जाय तो विकास कि जरुरत के लिए जमीन कि जरुरत होगी ही . अतः उसी अनुपात में कृषि उत्पादन भी प्रभावित होगा यहीं से प्रतिगामी लक्षण उत्पन्न होगें . यह प्रभाव आज नहीं दिखाई देगा बल्कि इसका दूरगामी परिणाम होगा . राजनैतिक पार्टियां शहरी भारत और ग्रामीण भारत की बात करती हैं .कोई इस पर बात करने को तैयार नहीं है कि आखिर “ग्रामीण भारत “क्यों है .लोग गरीबी हटाओ का नारा दे रहे हैं परन्तु गरीबी क्यों बढ़ रही है इस समस्या की और ध्यान देने की जरुरत ही नहीं समझते . जनसंख्या बढाओ, वोट दो , हमें सत्ता दो हम तुम्हारा कर्ज माफ करेगें . वर्त्तमान समय में सभी पार्टियों का यही नारा हो गया है . कर्नाटक में सुखा पड़ रहा है , उत्तर भारत में वर्षा कम हो रही है , पर्यावरण संतुलन बिगड़ रहा है और जनसंख्या संतुलन भी बिगड़ रहा है . किसी किसी समुदाय में जनसंख्या वृद्धि आश्चर्य जनक रूप से बहुत ज्यादा है . जैसे इस एक काम को पुरे मनोयोग से उनके द्वारा किया जा रहा है क्या यह पी .यल .४८० के पुनर्वापसी की आहट तो नहीं ? सोचिये आखिर हम चाहते क्या हैं ?
सरकार को दो से अधिक संतानों पर प्रतिबन्ध लगा कर जनसंख्या वृद्धि रोकने का प्रयास करना चाहिए . जो इस कानून को न माने उन्हें सभी प्रकार की सरकारी सुविधाओं से वंचित किया जा सकता है . यही सही समय है , क्योकि आज युवाओं की संख्या देश में विश्व के किसी अन्य देश की तुलना में सबसे ज्यादा है यदि यही रफ्तार रही तो आगे और भी ज्यादा रहेगी .अगर आज भी जनसंख्या वृद्धि को नहीं रोका गया तो बहुत भयानक विस्फोट होगा और उसकी आवाज भी नहीं सुनाई पड़ेगी . जापान में आई सुनामी की तरह हम केवल हाथ पर हाथ धरे तूफान गुजर जाने की प्रतीक्षा भर कर सकेगें . विकास की गति को बनाए रखने के लिए तथा समाज को एक सूत्र में बांधे रखने के लिए जीतनी जल्दी हो सके सरकार को जनसंख्या वृद्धि रोकने के लिए कानून बनाना ही होगा .

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