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दहेज़ नहीं मिला !!!

bebaak
bebaak
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फिर चिट्ठी आई
क्या लिख दूँ ?
जमाने भर का रोना
समाज की पाबंदी
नेकी और बदनामी का डर
पत्र पढ़ कर करवट बदल लेता हूँ /
अमलतास गुलमोहर की छाँव
याद आ जाती है
नदी का तीर
बादल के आवारा टुकड़ों की तरह
स्वछंद विचरण
खँडहर का प्राचीर
और
झाड़ियों का झुरमुट
फिर करवट बदल लेता हूँ /
शबनम की बूंदों से भरा मुख
दरवाजे की ओट में खडा है
मैं
बरदाश्त नहीं कर पाता
सिंदूर से भरी मुठी
उसकी मांग में भर देता हूँ /
लाज से सिमटी सिकुड़ी
लाल चमकती चुनरी उड़ाती
उषा भाग जाती है ,
और मैं –
पृथ्वी पर
प्रकाश बिखेरने वाला सूरज
खडा खडा सोचता हूँ
दहेज़ में कुछ नहीं मिला !!!

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